गुरुवार, 5 जनवरी 2012

ए खुदा तेरा ईजादे-करिश्मा

ए खुदा तेरा ईजादे-करिश्मा तेरी पहचान ना बन सका
ये हाड़ मांस का पुतला अभी इंसान ना बन सका

घर की लाज ना ढंक पाएगी देहरी पे लटके परदों से
इक टुकड़ा कफ़न मुफ़लिसों की आन ना बन सका

यूं कितने देते हैं जां इन आम कत्लोगारद में
हर मरहूम मगर वतन की शान ना बन सका

नफरत की लिए निशानी रहा भटकता दर-ब-दर
पले प्यार से दिल में वो अरमान ना बन सका

अशआर पढ़े हैं ना जाने कितने हमने बज़्मों में
दैरो-हरम में जो गूंजे वो अजान ना बन सका

पैगाम सुने हैं कई हमने इन सामंती दरबारों के
अमन-मोहब्बत को फैलाने फरमान ना बन सका

कवि-हेमंत रिछारिया

ग़ज़ल

एक नई जंग का हौंसला दे गया
सबक फिर कोई हादसा दे गया

हिज्र की शक्ल ली वस्ल ने मगर
प्यार का इक नया कायदा दे गया

रात गहराई है ना चिराग कोई
एक जुगनू हमें आसरा दे गया

लोग घर से चले और गुम हो गए
रहगुज़र को सफर कारवां दे गया

कवि-हेमंत रिछारिया

ज़िंदगी अपनी हो रही जो ग़म में बसर है

ज़िंदगी अपनी हो रही जो ग़म में बसर है
कुछ तो किस्मत कुछ तेरी आहों का असर है।

कटती नहीं शब तेरे आगोश के बिना
लगता है जैसे बड़ी दूर सहर है।

कब्र पे आकर वादा वो निभा गए
आज सुर्खियों में बनी ये ख़बर है।

मैं तो लिए बैठा हूं खाली जाम अपना
लेकिन मेरा साकी डाले ना नज़र है।

-हेमंत रिछारिया

बुधवार, 4 जनवरी 2012

श्वानों की लडा़ई


एक बार देखी हमने श्वानों की लडा़ई,
हड्डी एक थी किंतु सबने उस पर नज़र गडा़ई।
एक गुर्राया; दूसरे ने पंजा बढा़या, तीसरा काटने को आतुर,
हड्डी ले भागा वही जो श्वान था सबसे चातुर।

फिर कुछ दिनों के बाद जब चुनाव है आया,
हमारी नज़रों के सामने वही द्रश्य दोहराया,
हमने देखी फिर से वही श्वानों की लडा़ई,
हड्डी एक थी किंतु सबने उस पर नज़र गड़ाई,
सुना था कि अपने क्षेत्र में "श्वान" भी "सिंह" होता है,
ये कैसा माहौल है यारों जहां "सिंह"; "श्वान" होता है..!

कवि-हेमंत रिछारिया

रविवार, 1 जनवरी 2012