बुधवार, 4 जनवरी 2012

श्वानों की लडा़ई


एक बार देखी हमने श्वानों की लडा़ई,
हड्डी एक थी किंतु सबने उस पर नज़र गडा़ई।
एक गुर्राया; दूसरे ने पंजा बढा़या, तीसरा काटने को आतुर,
हड्डी ले भागा वही जो श्वान था सबसे चातुर।

फिर कुछ दिनों के बाद जब चुनाव है आया,
हमारी नज़रों के सामने वही द्रश्य दोहराया,
हमने देखी फिर से वही श्वानों की लडा़ई,
हड्डी एक थी किंतु सबने उस पर नज़र गड़ाई,
सुना था कि अपने क्षेत्र में "श्वान" भी "सिंह" होता है,
ये कैसा माहौल है यारों जहां "सिंह"; "श्वान" होता है..!

कवि-हेमंत रिछारिया

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