ए खुदा तेरा ईजादे-करिश्मा तेरी पहचान ना बन सका
ये हाड़ मांस का पुतला अभी इंसान ना बन सका
घर की लाज ना ढंक पाएगी देहरी पे लटके परदों से
इक टुकड़ा कफ़न मुफ़लिसों की आन ना बन सका
यूं कितने देते हैं जां इन आम कत्लोगारद में
हर मरहूम मगर वतन की शान ना बन सका
नफरत की लिए निशानी रहा भटकता दर-ब-दर
पले प्यार से दिल में वो अरमान ना बन सका
अशआर पढ़े हैं ना जाने कितने हमने बज़्मों में
दैरो-हरम में जो गूंजे वो अजान ना बन सका
पैगाम सुने हैं कई हमने इन सामंती दरबारों के
अमन-मोहब्बत को फैलाने फरमान ना बन सका
कवि-हेमंत रिछारिया
गुरुवार, 5 जनवरी 2012
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें