रविवार, 14 फ़रवरी 2010

प्रेम ही परमात्मा है


प्रेम चतुर्दशी यानि वेलेंटाइन-डे का विरोध करना तो जैसे कुछ लोगों का कर्तव्य बन गया है। जब भी यह त्यौहार आता है ये लोग अपनी पिटी पिटाई दलीलों के जरिए इसका विरोध करना शुरु कर देते हैं। ये लोग तो इतना भी नहीं जानते कि जिन शिव के ये सैनिक होने का दावा करते हैं उन्ही शिव ने प्रेम के वशीभूत होकर ही पार्वती के बिछोह से क्षुब्द होकर स्रष्टि का प्रलय कर दिया था। जीसस, मीरा, क्रष्ण, महावीर, बुध्द आदि सभी ने प्रेम को स्वीकार किया है। जीसस का प्रसिध्द वचन है- प्रेम ही परमात्मा है। फिर ये लोग इतना भी नहीं जानते कि ये किसका विरोध कर रहे हैं प्रेम का या पाश्चात्य संस्क्रति का। यदि प्रेम का तो यह एक कुत्सित मानसिकता है और यदि पाश्चात्य संस्क्रति का तो ये सिर्फ अपने अहंकार का पोषण है। मान लीजिए यदि किसी भारतीय पर्व को विदेशों में इस तरह मनाया जाय तब भी क्या ये इसी प्रकार विरोध करेंगे? प्रेम तो वह मार्ग है जिस पर चलकर परमात्मा को पाया जाता है। रामक्रष्ण ने एक बार अपने शिष्य से कहा था कि यदि तुमने संसार में किसी से भी प्रेम किया हो तो मैं उसे शुध्द करके तुम्हारा साक्षात्कार परमात्मा से करा सकता हूं परंतु यदि तुमने किसी से भी प्रेम नहीं किया है तो तुम्हें परमात्मा से मिला पाना कठिन है। समाज के तथाकथित ठेकेदार उसी प्रेम की संभावना को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि इस प्रकार विरोध प्रदर्शन करके वो इसे और स्थापित कर रहे हैं। इस बात से वो अनजान हैं क्योंकि जिस चीज़ को जितना दबाया जाता है वह उतनी ही उद्दीप्त होकर प्रकट होती है। आज आवश्यकता प्रेम के विरोध की नहीं बल्कि प्रेम के शुध्दिकरण की है। प्रेम का विरोध तो स्वयं परमात्मा का विरोध है इसलिये ही संत कबीर ने कहा है-

"पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया ना कोय
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय"

- हेमन्त रिछारिया

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