शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल

ज़रा सा पाने की चाहत में बहुत कुछ जाता है
न जाने सब्र का धागा कहां पर टूट जाता है

किसे हमराह कहते हो यहां तो अपना साया भी
कहीं पर साथ रहता है कहीं पर छूट जाता है

ग़नीमत है नगर वालों लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गांव में अक्सर दरोगा लूट जाता है

अजब शै हैं ये रिश्ते भी बहुत मजबूत लगते हैं
ज़रा सी भूल से लेकिन भरोसा टूट जाता है

बमुश्किल हम मुहब्बत के दफ़ीने खोज पाते हैं
मगर हर बार ये दौलत सिकंदर लूट जाता है

-आलोक श्रीवास्तव

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें