रविवार, 21 फ़रवरी 2010

बेरहम निकले

रहमदिल उनको हम समझे, मग़र वो बेरहम निकले ।
बड़े बेदर्द वो निकले ,
बड़े ही बेशरम निकले ।
नहीँ मालूम था कूचा - ए - क़ातिल मेँ है घर तेरा ,
बचाकर जान क़ातिल से बड़ी मुश्क़िल से हम निकले ।
सुना दी दास्ताँ अपनी मसीहा जानकर उनको ,
मग़र अफ़सोस है हमको ,
वो पत्थर के सनम निकले ।
हमारी आँख मेँ आँसू ,
तो उनकी आँख मेँ शोले ,
हमारे हाथ मेँ दिल था ,
तो उनके पास बम निकले ।
जलाया इस क़दर दिल को ,
बयाँ हम कर नहीँ सकते ,
हमारी आँख से आँसू भी निकले तो गरम निकले ।
बहाया उनके क़दमोँ मेँ , लहू का आख़िरी क़तरा ,
वो गिन के क़तरोँ को बोले ,
कि ये क़तरे तो कम निकले ।
हमारे साथ मेँ कर दी , सितम की इन्तिहा फिर भी, हमारी आरज़ू ये है ,
उन्हीँ क़दमोँ मेँ दम निकले ।

- रमेश दीक्षित , टिमरनी

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