अधरों पर शब्दों को लिखकर मन के भेद न खोलो
मैं आंखो से सुन सकता हूं तुम आंखो से बोलो
फिर करना निष्पक्ष विवेचन मेरे गुण-दोषों का
पहले मन के कलुश नयन के गंगाजल में धो लो
संबंधों की असिधारा पर चलना बहुत कठिन है
पग धरने से पहले अपने विश्वासों को तौलो
स्नेह-रहित जीवन का कोई अर्थ नहीं है
मेरे मीत न बन पाओ तो और किसी के हो लो
जीवन मरूथल में तरूछाया ढूंढे नहीं मिलेगी
तप्त धरा को मां का शीतल अंश समझकर सो लो
"गोविंद" वाणी-बाण ह्रदय को छ्लनी कर देते हैं
सत्य बहुत कड़्वा होता है सोच-समझकर बोलो
-गोविंदाचार्य "निशात"
सोमवार, 1 मार्च 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बेहतरीन ग़ज़ल। लेखक का परिचय भी दीजिए।
जवाब देंहटाएं