सोमवार, 1 मार्च 2010

ग़ज़ल

अधरों पर शब्दों को लिखकर मन के भेद न खोलो
मैं आंखो से सुन सकता हूं तुम आंखो से बोलो

फिर करना निष्पक्ष विवेचन मेरे गुण-दोषों का
पहले मन के कलुश नयन के गंगाजल में धो लो

संबंधों की असिधारा पर चलना बहुत कठिन है
पग धरने से पहले अपने विश्वासों को तौलो

स्नेह-रहित जीवन का कोई अर्थ नहीं है
मेरे मीत न बन पाओ तो और किसी के हो लो

जीवन मरूथल में तरूछाया ढूंढे नहीं मिलेगी
तप्त धरा को मां का शीतल अंश समझकर सो लो

"गोविंद" वाणी-बाण ह्रदय को छ्लनी कर देते हैं
सत्य बहुत कड़्वा होता है सोच-समझकर बोलो

-गोविंदाचार्य "निशात"

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