होली के दोहे
दहकी दहकी दोपहर बहकी-बहकी रात।
फागुन आया गांव में लेकर ये सौगात॥
है चंदन के लेप सी ये सीने की आंच।
सखि पाती बिन बैन के नैन मूंदकर बांच॥
खनक उठे हैं लाज के बागी बाजूबंद।
संयम के हर छंद को होने दो स्वछंद॥
-शिवओम अम्बर
बरस नया ले आ गया, रंगो का त्यौहार।
चटक-मटक गोरी फिरे, पिय करे मनुहार॥
केशर से रंगी बदन, कस्तूरी सी रात।
पायल बिछ्वे कर रहे, चुपके-चुपके बात॥
यह यायावर ज़िंदगी, चलते-चलते पांव।
भर पिचकारी मार दे, आए तेरे गांव॥
दहक रहा टेसू खड़ा, घूंघट में है पीर।
बंधन सारे तोड़कर, गोरी हुई अधीर॥
कजरारे नयना हंसे, गाल बने गुलाब।
रंग गुलाबी मन हुआ, मिलने को बेताब॥
-प्रेमचंद सोनवाने
कीचड़ उसके पास था मेरे पास गुलाल।
जो था जिसके पास में उसने दिया उछाल॥
-माणिक वर्मा
होली आई गांव में गई गांव की नींद।
आंखों में सौदे हुए होंठों कटी रसीद॥
-कैलाश गौतम
सोमवार, 1 मार्च 2010
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